अपनी धुन में रह प्यारे
पर जग भी मत तज प्यारे।।
अपनी धुन में रह प्यारे
पर जग को मत तज प्यारे
जग से न बेगाना बन
खुद से न अनजाना बन
ताल-मेल ऐसा कुछ कर
मन भी,
बाहर रहे विचर
दो मन मिले बने दुनिया
फिर है सुख या दुख है क्या
चलता है, तो चलता जा
रख मन के मीत सँवारे।
अपनी धुन में रह प्यारे ।।
पर जग भी मत तज प्यारे।।
मन साधे तो मानस है
तब ही बसते मन रस है
रिद्धि-सिद्धि साधना सभी
एकाग्रित मन ही बस है
इससे जो बाहर निकले
फिर चाहे जितना कर ले
जब तक ठोकर न खाये
ठौर ठिकाने कब आए
सब जाने फिर भी भटकें,
रह तू अपनी हद प्यारे।
अपनी धुन में रह प्यारे
पर जग भी मत तज प्यारे।।
अपना जप तू जपता जा
दुनिया को भी रमता जा
खुद को पाती कौन लिखे,
खुद से,
जग से मिलता जा
खुद के दुख क्यूंकर तू गिन
बाहर देख कष्ट अन-गिन
इक का भी यदि क्लेश मिटा
समझ ये जीवन भेद लुटा
अंतः से भर शक्ति, संवर
कर जीवन सार्थक प्यारे।
अपनी धुन में रह प्यारे।।
पर जग भी मत तज प्यारे।।
ब्रह्म महा जीवन क्षण-भर
पर जीवन-पल है अक्षुण्ण
ज्योत जले जब मिल जुल कर
दैविक तेज,
न हो नश्वर
बन कर सबका मीत,
सखा
कान्हा बन,
तू रास रचा
आना जाना ध्यान न रख
अपनी भी पहचान न रख
बन जा कुम्भ, कभी जल में
या बन जलधि कभी प्यारे।
अपनी धुन में रह प्यारे।।
पर जग भी मत तज प्यारे।।
प्रेम त्याग की दुनिया में
मन भावों की कुटिया में
तुझको यदि है प्रेम मिला
समझ विधाता है इसमें
सह ले जग के स्वांग सभी
दुख और दर्द के मांग सभी
प्यार मिला जो जीवन में
रख उसको शाश्वत मन में
डर मत सब पा जाएगा
जब डुबकी प्रेम भँवर मारे
अपनी धुन में रह प्यारे।
पर जग भी मत तज प्यारे।।
खुशियों की ले सौगातें
सबके प्रेम की ले बातें
हो जा बस दीवाना तू
ले जग के दिन और रातें
प्रिय के दिल में प्रीत जगा
दीवानों सी रीत लगा
मन-सुख तो दुनिया न्यारी
दुख में भी लगती प्यारी
जिसका है, उसका हो जा
फिर उसके रंग में रंग प्यारे।
अपनी धुन में रह प्यारे।।
पर जग भी मत तज प्यारे।।
~ अशोक सिंह
न्यू यॉर्क, नवं॰ 2104
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