इसलिए ही,
मैं नशे में हूँ।
जब जगत में सर्वपरि हो
मनुज के प्रतिकूल रेले
घट रहा हो प्रेम हर दिन
बढ़ रहे सतही
झमेले
मन स्वयं पर कर रहा हो
विवश, बारंबार अंकुश
विमुख कब हो सकूँ
इनसे
जब इसी संसार में
हूँ ।
इसलिए ही,
मैं नशे में हूँ।
प्रेम की भी डगर
पर चल
दुखों की ही खेप झेली
कौन वो इंसान जिसको
बूझूँ, है ऐसी पहेली
मित्र, अग्रज, अनुज या रब
सभी की पहचान ले ली
स्वजन की माया घिरा
पर स्वयं पर ही भार मैं हूं,
इसलिए ही,
मैं नशे में हूँ।
मोड लूँ कर्तव्य से मुख
हुआ संभव नहीं अब तक
हर कसम गाँडीव की जैसे
दिलायी सखे ने रख
जगत के कुरुक्षेत्र में अब
विजय की अभिलाषा नहीं है
पार्थ बन कर जीऊँ क्यूँ कर
कृष्ण का कोई न मैं हूँ,
इसलिए ही,
मैं नशे में हूँ।
~ अशोक सिंह
अक्टूबर 2014, न्यू यॉर्क
अक्टूबर 2014, न्यू यॉर्क
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