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शनिवार, 18 जुलाई 2009

हूं मैं कौन ?



क्षण भंगुर पंजर के वाहक,
भ्रम में अब तक जीते आये ।
अविरल जीवन के सब ग्राहक,
मन से मन को हरते आये ।

सहज पवन मे डग-मग,मद्धिम
सुखमय नौका चलती रहती ।
अल्प दुखों की चुभन कदाचित
आती रहती, जाती रहती॥

बीती कितनी रुतु बसंत की
बीते कितने सुखमय साल ।
सात सुखों के इस समुद्र में
इक दिन टुटा भ्रम का जाल ।

ज्ञ्यान शिखा मे प्राण पनपते,
ही सवाल उठते कुछ मौन ।
अह वयं की उहा-पोह मे,
पूछा आखिर हूं मै कौन ?

सहज रूप से श्रंग विराजित
कर्मठता की मैं उपमा ।
सांसारिक या अहं ब्रंह हो
सब देखा, समझा अपना ।

पर कल क्या था,सोच न पाया
कौन था मैं या फिर "क्यों" हूं ।
सहज प्रतिष्ठित कर बैठा था
बरबस मैं दिखता ज्यों हूं ।

सतत रहा है "मैं" संबोधन
बाल, युवा या वृद्ध-आश्रम ।
"कौन"जुड़ा जब पृश्न कोंचता
साथ युगल का होता दुर्गम |
असमंजस मे अंतर्मन की
तह मे जा कर ली डुबकी ।
नया एक व्यक्तित्व ढूंढता
जिसमे अविरलता बसती ।

परिभाषायें बदलेंगी, ज्यों ज्यों
जीवन पथ पर कदम चलेंगे ।
आज सबल, सक्षम शरीर तो
अर्थ - सिद्धि का रंग भरेंगे ।

प्रश्न यही है, यही रहेंगे
समय न बदले इनकी रीति |
आज सरल, जो सार्थक लगती
कल जाने कैसी हो प्रीति ।

कल की जर्जर काया मे
क्या गूंजेगा उत्तर का मौन ?
उम्र का सूरज ढलते ढलते
पहचानेगा आज का "कौन" ?

~ अशोक सिंह
   न्यू यॉर्क