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सोमवार, 19 फ़रवरी 2007

मोड़

ये ज़िंदगी भी अज़ीब है,

जब से होश सम्हाला है
न जाने कितने, तिराहे चौराहे
आ चुके हैं ।

अब फिर से
एक नया मोड़ देने की कोशिश
जारी है,
इस ज़िंदगी को ।

मै अकेला रहता हूं
क्यों कि,
मेरे तमाम सारे पहलुओं को
को कोई एक साथ
समझ नही सका है,

कहीं उम्मीद लगाई है,
लेकिन डर है,
वहां जा कर
अपना अस्तित्व ही
न खो बैठूं ।

~ अशोक सिंह  
    न्यू यॉर्क, 2/19/07