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सोमवार, 7 सितंबर 2015

गीत - कहो न तुम फिर मिलोगे।


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कहो न, तुम फिर मिलोगे।

चाह अब तक भर न पायी
रात वह फिर से न आयी
आस के बेकल कठिन पल
मचल कर देते दुहाई
प्रीत की पगडंडियों पर,
            प्राण बन, तुम फिर चलोगे,
            कहो न, तुम फिर मिलोगे ।

ध्यान अब बरबस है आये
मन भ्रमित अक्सर हुआ है
मूर्त या अध - खुली पलकें
छवि यही मंजुल अब भाए
भावनाओं का बवंडर डोलता
चित्त भी निरं-तर टटोलता
विजन मानस भ्रांत भ्रम में
पूर्ण कल्पित जगत खोजता

क्या नहीं था, बीच अपने
मूल, भौतिक सुख सपने
क्या पता था एक दिन बस,
            रे की दीवार जैसे तुम ढहोगे,
            कहो न, तुम फिर मिलोगे।


मन सघन है, कोटि बिंदु-
भावनाओं के भरे हैं
गहन अंतर्जाल का वन
अनगिनत जाले बुने हैं
एक मद्धम रोशनी बन
द्वार तुमने खटखटाया
भंवर, मृगजल से परे रख
गले ख़ुद मुझको लगाया

वार कर सर्वस्व तुमने
बन के जीवन गीत तुमने
एक तन मन जान कर के,
            कहा था, संग सदा होगे,
            कहो न, तुम फिर मिलोगे

मिलन जब उत्कृष्ट था  
तब दूर तो होना ही था
तीव्र मन की चाह मादक
भंवर में खोना ही था
क्यों नहीं यह मान लेते
मिलन का मत्त, मन समेटे
हुआ जीवन सार्थक मिल
तुम्हीं थे इसके रचयिते

भाग्य की बेबस लकीरें,
तर्क-संगत मन की पीरें
इस से स्वप्निल और क्या था?
            आ कभी तुम ख़ुद कहोगे,
            कहो न, तुम फिर मिलोगे।

~ अशोक सिंह
   न्यू यॉर्क, जुलाई 31, 2015

रविवार, 2 अगस्त 2015

कुछ तुम्हारे चितवनों का रंग ढला है





कुछ रहा है अनकहा सा,
मन में मेरे
कुछ तुम्हारे चितवनों का रंग ढला है ।

झुकी पलकों से निहारा
प्रेम के संकल्प साधे
ज्वार मन के मन में रखे  
नयन भी अभियक्ति आधे
आँख खोली, जब निहारा
रुक गया पल, समय की गति
राह कितने खुल गए जो
मन तुम्हारे जा के झाँके
      दिव्य दृष्टि अगर मिलती,
      दूर से ही भाव पढ़ता,
      मन मेरा भी तुम को लेकर मन-चला है।

प्रेम की प्रतिमूर्ति है पर
कौन सा रिश्ता बना लूँ
सौ हँसी की लूँ बलाएँ
थाह दिल की कैसे पा लूँ
यूं समर्पण भाव की
संवेदना पाई है अक्सर  
पर किसी की और धुन में
गीत अपना कैसे गाऊँ
      कमल के आगोश में ज्यों
      मधुप निश-भर,
      हृदय तुम संग बावला सा हो चला है।  



जब कभी भी प्रेम के
संसर्ग में बाधा रही है
प्रबल उद्यम लालसा, पर
मूक अहि-राधा रही है  
प्रेम के प्रतिमान जब
संदर्भ बन के रह गए हों
तब फ़िज़ा ने ही कथा
उन्मुक्त चाहों की कही है
      सुभग इस उन्माद की, या  
      बेकसी की चटख से,
      हवाओं का मर्म भी मादक, नशीला है।

~ अशोक सिंह
   न्यू यॉर्क, जुलाई 31, 2015