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शनिवार, 10 नवंबर 2007

प्रेम प्रतिबिम्ब


मेरा मन
जब भी विवेक के व्यथित तर्कों, एवं
मस्तिष्क के अनगिनत प्रश्नचिन्हों से
एक क्षण को भी
मुक्त होता हूं,
तुम इतनी सहजता से
स्वीकृतता - अस्वीकृतता के
द्वंद के मध्य
मेरी भावनाओं के केन्द्र बिन्दु का
स्थान ग्रहण कर लेती हो।

यूं ही बस,
पलक झपकते ही
सारे प्रकोष्ठ में
तुम्हरी चिर परिचित प्रेमगन्ध
एक बार और
भर जाती है।
सुवासित केशों की,
तुम्हारे देह की सम्मोहक सुगन्ध,
पुष्प सम कमनीयता मे मैं
आत्मलिप्त हो जाता हूं ।
और तुम,
उसी आकारहीन, वर्णहीन
सुरभित सुगन्ध की तरह
मेरी कल्पनाओं में चारों ओर
छा जाती हो,
मैं एक फ़ूल की पन्खुडी की तरह
स्वयं को
हल्का एवं शरीर रहित
मह्सूस करने लगता हूं,
तुम्हारे आत्मीय चुम्बनों का अहसास
रक्त अलकंतक कपोल
और, अपनी सीमायें
भुला देने को तत्पर
मेरा व्यक्तित्व.....
सबकुछ .....
पहले ही की तरह,
बिल्कुल पहले की तरह...।

- प्रेम प्रतिबिम्ब संकलन से

~ अशोक सिंह  
   न्यू यॉर्क, 11/10/07 

मंगलवार, 19 जून 2007

लगता मेरे गीत किसी ने गाये हैं


लगता मेरे गीत किसी ने गाये हैं ।
इसीलिये बिन मौसम बादल छायें हैं ॥

तिमिर बहुत गहरा है लेकिन,
जीवन भी उतना ही दुर्गम ।
रात्रि प्रहर कटते जाते हैं,
बोझिल पलकें गिनती क्षण-क्षण ॥

आंखों मे सपने कुछ-कुछ अलसायें हैं ।
लगता मेरे गीत किसी ने गाये हैं ।
इसीलिये बिन मौसम बादल छायें हैं ॥

पतझर की रुतु, कैसी ये रितु,
क्या बयार क्या पावस रुन-झुन ।
कोपल, किसलय, कोकिल किलकिल,
कल की बातें, कल के ये दिन ॥

कुछ बेमौसम फूल यहां मुसकायें हैं ।
लगता मेरे गीत किसी ने गाये हैं ।
इसीलिये बिन मौसम बादल छायें हैं ॥

जीवन कठिन दुखों की गागर,
शंशयमय पनघट की हलचल ।
जीवन डोर चलेगी जबतक,
कठिनाई पनपेंगी पल-पल ॥

खुशियं के ये अश्रु सहस भर आयें हैं ।
लगता मेरे गीत किसी ने गाये हैं ।
इसीलिये बिन मौसम बादल छायें हैं ॥

प्रेम-रहित नीरस जीवन यह,
किस पर मै न्योछावर करता ।
आस अभी तक लगी जहां पर,
ऊष्ण, शुष्क मरुस्थल मिलता ॥

मधुर मदिर के जाम कहीं छलकायें हैं ।
लगता मेरे गीत किसी ने गाये हैं ।
इसीलिये बिन मौसम बादल छायें हैं ॥

~ अशोक सिंह  
    न्यू यॉर्क, 6/19/07 

प्रेम निर्वाह

आज तुमने
हमारे मिलन की बेला को
हमारे परिणय के प्रहर को
झुठला कर
एक बार फ़िर से
मुझे असमन्जस मे डाल दिया....

एक युग से
तुम्हारे प्रखर एवं
परिपक्व प्रेम मे लिप्त
मैं इस अह्सास को
लगभग भूल ही चला था कि,
समय और दिशाओं की
असीमित पगडन्डियों पर,
अगड़ित दिशाओं में
मेरे मंडराते रहने के पश्चात ही
तुम मेरे जीवन में
स्थायित्व बन कर आईं थीं,
मैं अपने अंतर उर मे
उस मोहित-मॄगी को
कर्म, स्वधर्म,
निर्णय एवं दायित्व से
अपना चुका था.
तुम्हरे भी कटावदार नैनों मे, मैनें
महावर से भरे पैरों का
सपना संजोया हुआ देखा था
तुम भी, एक ज्वार-पल सी चुलबुल
फ़ाल्गुनी आकाश सी प्रफ़ुल्लित
मेरे उर-सागर मे,
संकुचित नदी सी
समा जाने को आतुर थी।

यह कलयुग ही, हमारा प्रेमयुग है
यूं कह
मिलने को आतुर,
अपने अंगों की आह्वान की ललक से
मुझ मे निहित पुरुष को
ललकारा था प्रिये,
मेरे अंतरमन एवं प्रेमी को
झकझोरा था,
उर्वषी सम यौवन से सराबोर
मेरी हर श्वांश मे
मेरे हर एक अवयव मे
नशीली सुगन्ध घोल देने वाली
अपनी उन्मादिता का सर्व-स्नेह
मुझ पर उड़ेलने को रत
मुझसे अन्गीकार का वास्ता करती
इस प्रणय की बेला के लिये
तुमने ही तो मुझे
तत्पर किया था।

ऒ देवपरी
मेरी अन्तरन्ग
मेरी अन्ततः लक्ष्य
मेरे गन्तय्व की सीमा
मेरे अस्तित्व का 'केवल' अर्थ,
हमारे इस मिलन से
तुम अपने पूर्ण नारीत्व एवं
मैं अपने पूर्ण पुरुषत्व का
भागी होता
तुम्हे अपने मे समेत कर
अपने मे निहित कर
एक भौतिक परन्तु
शुभ यथार्थ का
आरम्भ करता।

आज तुमने
इस मिलन की बेला पर
न आकर
उस तृषा की क्षुधा,
जो आग है
एक अमिट प्यास है, को
मेरे अन्दर जन्म दे दिया है
इस परिणय से हमारे प्रेम को
सम्पूर्णता मिल जाती।
लेकिन, सम्पूर्ण प्रेम की
इतिहास मे कोइ महत्ता तो है नही।
क्यों कि
राधा-कृष्ण का प्रेम तो आज भी अमर है,
कृष्ण-रुक्मिनी के प्रेम का
वर्णन भी तुमने कभी सुना है?
मैं तुम्हारे प्रेम के उन्माद मे,
तुम्हारी लालसा मे,
शायद इस तथ्य को
कभी समझ न पाता।

आज तुमने इस परिणय के प्रहर को
झुठला कर
अन्चाहे, अन्जाने मे ही
हुम दोनो पर
एक बड़ा उपकार किया है।
तुमने हमारे प्रेम को अमर कर दिया है......

~ अशोक सिंह  
    न्यू यॉर्क, 6/19/07  

शनिवार, 16 जून 2007

क्या राह में पलकें बिछाये तुम खड़ी हो?

सुलझी जीवन की पहेली, खोयी थी तुम वो कड़ी हो।
क्या राह में पलकें बिछाये तुम खड़ी हो?

निष्‍ठुरा है ये दुपहरी, धूप लगती पर भली सी,
तपिश रेगिस्तान के इस रेत में बस चुलबुली सी।
व्योम के अनुमान सारे अटकलों में रह गये हैं,
आज जिस परिधान में तुम सज रही हो सुंदरी सी॥

ज्यों बारिशों की चंद बूंदें, तप्‍त धरती पर पड़ी हों।
क्या राह में पलकें बिछाये तुम खड़ी हो?

लहर के उन्माद से जलधि अनिग्रह हो चला है,
पावसों की झड़ी से हर रोम चंचल हो चला है।
प्रकॄति की अनहोनियों भी जान कर अनजान बनतीं,
क्या नयन में काजल लगाते एक अश्रु बह चला है॥

ज्यों गहन मेघों बीच निकली, रश्मियों की कुछ लड़ी हों।
क्या राह में पलकें बिछाये तुम खड़ी हो?

भ्रमर भी बौराये हैं, कोपल, कली में भेद खोये,
आज उपवन भी खिले फूलों की सुन्दरता सजोये।
आम के बौरों की मदहोशी हवा मे घुल चुकी है,
क्या शर्म के आगोश मे छुप प्यार के कुछ बीज बोये?

ज्यों राह मे सत-रंगी, पुष्प मालायें पड़ीं हों।
क्या राह में पलकें बिछाये तुम खड़ी हो?

आज मै एकाकियों से निकल बाहर विचर सकता
मन की पीड़ा तज, अपरिमित प्रकॄति का उन्माद चखता
बोये थे जो बीज तुमने प्रेम के, वो लहलहाये
आज मे सौन्दर्य की भाषा हॄदय से समझ सकता

नयन अवलोकित करें छवि, सामने तुम हर घड़ी हो।
क्या राह में पलकें बिछाये तुम खड़ी हो?

सुलझी जीवन की पहेली, खोयी थी तुम वो कड़ी हो।
क्या राह में पलकें बिछाये तुम खड़ी हो?

~ अशोक सिंह  
    न्यू यॉर्क, 6/16/07  

इससे पहले कि शाम हो जाये


इससे पहले कि शाम हो जाये
वक्त यूं ही तमाम हो जाये
आओ कोई सपना संजो लें मिलकर
कल की खातिर मुकाम हो जाये

यूं तो उम्र बहुत लम्बी है, लेकिन
कुछ ही तो पल हैं ऐसे,
जिनमे हम अक्सर जीते हैं
कौन जी पाया है
हकीकत की संगीनी (दुष्कारी ) में
ख्वाब बुनने में या खयालों मे
अब तलक के ये दिन बीते हैं
कल के बारे मे भी जरा सोचो हमदम,
टूटे ख्वाबों के सहारे तो बसर हो सकती है
वरना सन्नाटे से भरी दोपहर की
सोच कर भी रूह मेरी कंपती है

यूं ही बस, ये वक्त और ये शाम गुजर जायेगी
कल दुबारा से नयी एक सुबह, फ़िर आयेगी
लेकिन मैं अपनी दुःश्वारी में और तू
अपनी मजबूरी में सिमट जायेगी
हम साथ नहीं होंगे फिर, न सही
फिर इन अध-पके ख्वाबों की याद आयेगी
आज तुम संग हो तो ये नींव डाल देते हैं
साथ किस्मत रही तो इमारत भी ये बन जायेगी
कौन जाने कल कौन सी करवट बैठे
इन हसीं खयालों में कुछ उम्र गुजर जायेगी
न जाने मेरी ही उम्र की रफ़्तार क्यों ऐसी है
मेरे तो बस की नही, तुम होगी तो सम्हल जायेगी

इससे पहले कि शाम हो जाये
वक्त यूं ही तमाम हो जाये
आओ कोई सपना संजो लें मिलकर
कल की खातिर मुकाम हो जाये

~ अशोक सिंह  
    न्यू यॉर्क, 6/19/07  

सोमवार, 19 फ़रवरी 2007

मोड़

ये ज़िंदगी भी अज़ीब है,

जब से होश सम्हाला है
न जाने कितने, तिराहे चौराहे
आ चुके हैं ।

अब फिर से
एक नया मोड़ देने की कोशिश
जारी है,
इस ज़िंदगी को ।

मै अकेला रहता हूं
क्यों कि,
मेरे तमाम सारे पहलुओं को
को कोई एक साथ
समझ नही सका है,

कहीं उम्मीद लगाई है,
लेकिन डर है,
वहां जा कर
अपना अस्तित्व ही
न खो बैठूं ।

~ अशोक सिंह  
    न्यू यॉर्क, 2/19/07