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शनिवार, 10 नवंबर 2007

प्रेम प्रतिबिम्ब


मेरा मन
जब भी विवेक के व्यथित तर्कों, एवं
मस्तिष्क के अनगिनत प्रश्नचिन्हों से
एक क्षण को भी
मुक्त होता हूं,
तुम इतनी सहजता से
स्वीकृतता - अस्वीकृतता के
द्वंद के मध्य
मेरी भावनाओं के केन्द्र बिन्दु का
स्थान ग्रहण कर लेती हो।

यूं ही बस,
पलक झपकते ही
सारे प्रकोष्ठ में
तुम्हरी चिर परिचित प्रेमगन्ध
एक बार और
भर जाती है।
सुवासित केशों की,
तुम्हारे देह की सम्मोहक सुगन्ध,
पुष्प सम कमनीयता मे मैं
आत्मलिप्त हो जाता हूं ।
और तुम,
उसी आकारहीन, वर्णहीन
सुरभित सुगन्ध की तरह
मेरी कल्पनाओं में चारों ओर
छा जाती हो,
मैं एक फ़ूल की पन्खुडी की तरह
स्वयं को
हल्का एवं शरीर रहित
मह्सूस करने लगता हूं,
तुम्हारे आत्मीय चुम्बनों का अहसास
रक्त अलकंतक कपोल
और, अपनी सीमायें
भुला देने को तत्पर
मेरा व्यक्तित्व.....
सबकुछ .....
पहले ही की तरह,
बिल्कुल पहले की तरह...।

- प्रेम प्रतिबिम्ब संकलन से

~ अशोक सिंह  
   न्यू यॉर्क, 11/10/07