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शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011

जन्मदिवस शुभ-कामनाएँ

मुखड़े की रौनक की बहाली सदा बनी रहे
गालों की लाली जैसे मला सा गुलाल हो ।
सुंदरता पर चार चांद हर बरस लगते रहें
छवि का क्या कहना, उर्वषी सा हाल हो ।

आपके जीवन में कुछ ऐसी ख़ुशी बहाल हो,
हो उम्र लम्बी, न एक भी सफेद बाल हो ।
प्रभु करे सभी की स्मरणशक्ति कुछ ऐसी बने,
रहे जन्मदिन याद पर न याद जन्मसाल हो ।

~ अशोक सिंह  
   न्यू यॉर्क 

सत्तर बरस, अनगिनत घडिया

७० वीं वर्षगांठ के अवसर पर...,

सत्तर बरस, अनगिनत घडिया |
सुन्दर सजी सहस्त्रो लडिया ||
कर्मठता की डगर छोड़ अब |
जोड़ी प्रेम मयी सब कडिया ||

प्रेम प्रगाढ़ भरे बंधन है |
फूले-फले है यही कामना ||
आनंद मय ये प्रहर सुनहरा |
शाश्वत रहे, है यही प्रार्थना ||

छोटी सी पर सकल ये दुनिया|
सुन्दर सजी सहस्त्रो लडिया ||

~ अशोक सिंह  
    न्यू यॉर्क, 12/23/11
  

कवि कल्पना की पराकाष्ठा

राह ये जाती कहाँ, हमको कहाँ भरमा रहे,
भले पूछा आप ने, तो सुनो हम फरमा रहे ।
बादलों तक हो लपकती, धरा की आकांक्षाएँ,
हम रहें प्रत्यक्ष, पर मन सूर्य और चंदा रहे ।

~ अशोक सिंह  
   न्यू यॉर्क 

सोमवार, 19 दिसंबर 2011

राह अभी भी तकना होगा !

स्वर्णिम सूरज गगन चढ़ चुका,
दिन का रास्ता और बढ़ चुका,
कल का कल से, और आज से यूं ही नाता रखना होगा ।
राह अभी भी तकना होगा !

दिन आते जाते, सृष्टि की माया
सुख कुछ, कुछ लाये दुख की छाया
सभी दिवस पर प्रश्न-चिन्ह है, सही दिवस कब चुनना होगा ।
राह अभी भी तकना होगा !

मौसम आए, आएंगे अविरलता से
समय चक्र गतिमान, अविरतता से
कितने मौसम की साझी, इस क्षणिक दूत से करना होगा ।
राह अभी भी तकना होगा !

क्या एक जन्म ही काफी है, पूछे मन
या एक सांस मे जी डालें सारे जीवन
तन का मन से, मन का मन से जीवन परिचय करना होगा
राह अभी भी तकना होगा !

मेरी कब मुझसे ही होगी पहचान
कितने बरस, परंतु मैं खुद से अंजान
सदियों की इस ऊहापोह में, खुद को कब तक तकना होगा ।
राह अभी भी तकना होगा !

ऐसा भी दिन आए जब मैं बुद्ध बनूँ
निर्बलता के बाने से हट, शुद्ध बनूँ
सदियों मे यदि एक बुद्ध तो, कितनी सदी ठहरना होगा ?
राह अभी भी तकना होगा !

~ अशोक सिंह  
   न्यू यॉर्क 

आज अनमना सा है दिल कुछ...!

तुमने घर के आँगन मे कब बोया पेड़ गुलाबों का
घर की चारदीवारी मे अब फूल खिलेगा कांटो का

कौन आग से खेल रहे हो, कौन से ग़म का मातम है
क्या से क्या देखो कर डाला अपने सबके सपनों का

अभिनय वो फनकारी है वज़न बात मे रख देती है,
केवल बोले सच तो करता कौन भरोसा अपनों का ।

ऐसी भी मजबूरी के दिन देख चुके फाका-मस्ती में
पड़ी उठानी चीजें वो भी, जिन पर हक़ था सच्चों का ।

जब जब बात करी है तुमने, बस शिकवों की बात करी,
आज अनमना सा है दिल कुछ, जिक्र करो बस बच्चों का ।

~ अशोक सिंह  
  न्यू यॉर्क 

रविवार, 20 नवंबर 2011

सूरज पे रोशनी !

अगर चाँद पर चाँदनी नहीं है होती,
तो क्या सूरज पे भी रोशनी नहीं होती

मेरे घर के किवाड़ खुद ही खुल जाते हैं,
उनके आने मे कोई आहट भी नहीं होती

रेत तो रेत है, निकल जाएगी पैरो के तले,
कोसते रेत को, जिसकी नीयत है यही होती

रेत पर नाम लिखा और वो बह भी गया
लौ मे जलने वालों की कोई उम्र नहीं होती

कभी मिलना फुर्सत मे तो बताएँगे हम भी
चाहत मे हमारी दर-ओ-दीवार नहीं होती।

~ अशोक सिंह  
   न्यू यॉर्क 

मुक्तक - ७/१३/११ मुम्बई बम ब्लास्ट

जो घायल हुये हादसे में इक आस ढूँढने निकले थे
रोज़ी रोटी की चिंता में, मम्मी और पापा निकले थे
सपने कल के ले आँखों मे थे हिन्दू मुस्लिम ईसाई
क्या पता उन्हें, खूंखार दरिंदे मौत बांटने निकले थे ।

~ अशोक सिंह
  न्यू यॉर्क, 2013