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शनिवार, 6 मार्च 2010

लौट चलें...?

क्य़ा करोगी लौट कर, क्या रखा उस पार मे
कौन है जो राह जोये, दूर उस संसार में
कोटि लहरें कोटी सांसें गुजरी हैं उस प्रहर से
हाथ तुमने जब दिया था अपना, मेरे हाथ में ।


प्यार कोई रितु नही, जो घूम, आये हर बरस
प्यार वो उपवन नहीं, खिले ऎक ही बार बस
ये तो वो वरदान है जो बिखरे अद्भुत रंगों में
स्वाद इसके सदा बदलें, ढूंढते क्यॊं एक रस ।


दर्द हमने सहे मिलकर, कभी ज्यादा कभी कम
गिले शिकवे किये सारे, कभी मै या कभी तुम
रीत कैसी ये निकाली, प्यार का इज़हार कैसा
भला कैसी ये मोहब्बत जिसमे आये मैं या तुम ।


ये सिला भी देख लेंगें, दौर एक दिन गुजरेगा
कल का होगा वो ज़माना, आज तो न रहेगा
जीत जाओ आज फिर से, ये मेरी बाज़ी  नहीं
पर नाम मेरा और तुम्हारा साथ शाश्वत रहेगा ।

~ अशोक सिंह 
   न्यू यॉर्क