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शनिवार, 6 मार्च 2010

फ़िर बसंत आयें जीवन में...!

फ़िर बसंत आयें जीवन में...!

सहमा सहमा जीवन पथ, कुछ अंधियारे उजियारे हैं
कुछ धुंधली धुंधली भोरें, कुछ शामों के अंधियारे हैं
कुछ सांसे लेती बस्ती हैं, कुछ मस्ती कुछ सुस्ती में
जीवन नैया है डोल रही, मंझधार कहीं या किनारे हैं ।

ये मरुःथल सा सूखा जीवन, कब बदलेगा सावन में
फ़िर बसंत आयें जीवन में...!

उपवन में किसलय आतुर हैं, फिर से खुल मुस्काने को
कलिका भी कल इतरायेगी, दिन दूर नहीं वो आने को
रितु आती है रितु जाती है धरती हंसती, मनुहारती है
पर हम एकाकी, तरस रहे, भंवरें का गुंजन गाने को ।

सुन्दरता सुन्दर लगती, हो ऎसा मन की बगियन में
फ़िर बसंत आयें जीवन में...!

मन प्रबुद्ध, है सब सुविधायें, क्या है ऐसा जो नहीं मिला
सुंदर आंगन, सुन्दर बगिया है कौन पुष्प जो नहीं खिला
भौतिक सुख से तन सराबोर पर, मन बंजर धरती सा है
ग्यानी ध्यानी सब हम में ही, पाता पर कोई नहीं सिला ।

प्यारी दुनिया छोटी छोटी, बांटो सब, मन-आंगन में
फ़िर बसंत आयें जीवन में...!

ठहरो भाई, कुछ सोचो, हम तुम से ही सब आया है
हम में तुम में ही नहीं बनी, ये कैसा खेल रचाया है
कैसी विडंबना, पागलपन जिसको हमने जितना चाहा
ईश्वर साक्षी उनका मेरा, उसको उतना ही रुलाया है ।

बांटो खुशबू सबसे, मुझसे, अनगिनतन फूल दो खिलने
फ़िर बसंत आयें जीवन में...!

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