हमारे मिलन की बेला को
हमारे परिणय के प्रहर को
झुठला कर
एक बार फ़िर से
मुझे असमन्जस मे डाल दिया....
एक युग से
तुम्हारे प्रखर एवं
परिपक्व प्रेम मे लिप्त
मैं इस अह्सास को
लगभग भूल ही चला था कि,
समय और दिशाओं की
असीमित पगडन्डियों पर,
अगड़ित दिशाओं में
मेरे मंडराते रहने के पश्चात ही
तुम मेरे जीवन में
स्थायित्व बन कर आईं थीं,
मैं अपने अंतर उर मे
उस मोहित-मॄगी को
कर्म, स्वधर्म,
निर्णय एवं दायित्व से
अपना चुका था.
तुम्हरे भी कटावदार नैनों मे, मैनें
महावर से भरे पैरों का
सपना संजोया हुआ देखा था
तुम भी, एक ज्वार-पल सी चुलबुल
फ़ाल्गुनी आकाश सी प्रफ़ुल्लित
मेरे उर-सागर मे,
संकुचित नदी सी
समा जाने को आतुर थी।
यह कलयुग ही, हमारा प्रेमयुग है
यूं कह
मिलने को आतुर,
अपने अंगों की आह्वान की ललक से
मुझ मे निहित पुरुष को
ललकारा था प्रिये,
मेरे अंतरमन एवं प्रेमी को
झकझोरा था,
उर्वषी सम यौवन से सराबोर
मेरी हर श्वांश मे
मेरे हर एक अवयव मे
नशीली सुगन्ध घोल देने वाली
अपनी उन्मादिता का सर्व-स्नेह
मुझ पर उड़ेलने को रत
मुझसे अन्गीकार का वास्ता करती
इस प्रणय की बेला के लिये
तुमने ही तो मुझे
तत्पर किया था।
ऒ देवपरी
मेरी अन्तरन्ग
मेरी अन्ततः लक्ष्य
मेरे गन्तय्व की सीमा
मेरे अस्तित्व का 'केवल' अर्थ,
हमारे इस मिलन से
तुम अपने पूर्ण नारीत्व एवं
मैं अपने पूर्ण पुरुषत्व का
भागी होता
तुम्हे अपने मे समेत कर
अपने मे निहित कर
एक भौतिक परन्तु
शुभ यथार्थ का
आरम्भ करता।
आज तुमने
इस मिलन की बेला पर
न आकर
उस तृषा की क्षुधा,
जो आग है
एक अमिट प्यास है, को
मेरे अन्दर जन्म दे दिया है
इस परिणय से हमारे प्रेम को
सम्पूर्णता मिल जाती।
लेकिन, सम्पूर्ण प्रेम की
इतिहास मे कोइ महत्ता तो है नही।
क्यों कि
राधा-कृष्ण का प्रेम तो आज भी अमर है,
कृष्ण-रुक्मिनी के प्रेम का
वर्णन भी तुमने कभी सुना है?
मैं तुम्हारे प्रेम के उन्माद मे,
तुम्हारी लालसा मे,
शायद इस तथ्य को
कभी समझ न पाता।
आज तुमने इस परिणय के प्रहर को
झुठला कर
अन्चाहे, अन्जाने मे ही
हुम दोनो पर
एक बड़ा उपकार किया है।
तुमने हमारे प्रेम को अमर कर दिया है......
~ अशोक सिंह
न्यू यॉर्क, 6/19/07
1 टिप्पणी:
बढ़िया रोमानी कविता है :)
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