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शनिवार, 16 जून 2007

इससे पहले कि शाम हो जाये


इससे पहले कि शाम हो जाये
वक्त यूं ही तमाम हो जाये
आओ कोई सपना संजो लें मिलकर
कल की खातिर मुकाम हो जाये

यूं तो उम्र बहुत लम्बी है, लेकिन
कुछ ही तो पल हैं ऐसे,
जिनमे हम अक्सर जीते हैं
कौन जी पाया है
हकीकत की संगीनी (दुष्कारी ) में
ख्वाब बुनने में या खयालों मे
अब तलक के ये दिन बीते हैं
कल के बारे मे भी जरा सोचो हमदम,
टूटे ख्वाबों के सहारे तो बसर हो सकती है
वरना सन्नाटे से भरी दोपहर की
सोच कर भी रूह मेरी कंपती है

यूं ही बस, ये वक्त और ये शाम गुजर जायेगी
कल दुबारा से नयी एक सुबह, फ़िर आयेगी
लेकिन मैं अपनी दुःश्वारी में और तू
अपनी मजबूरी में सिमट जायेगी
हम साथ नहीं होंगे फिर, न सही
फिर इन अध-पके ख्वाबों की याद आयेगी
आज तुम संग हो तो ये नींव डाल देते हैं
साथ किस्मत रही तो इमारत भी ये बन जायेगी
कौन जाने कल कौन सी करवट बैठे
इन हसीं खयालों में कुछ उम्र गुजर जायेगी
न जाने मेरी ही उम्र की रफ़्तार क्यों ऐसी है
मेरे तो बस की नही, तुम होगी तो सम्हल जायेगी

इससे पहले कि शाम हो जाये
वक्त यूं ही तमाम हो जाये
आओ कोई सपना संजो लें मिलकर
कल की खातिर मुकाम हो जाये

~ अशोक सिंह  
    न्यू यॉर्क, 6/19/07  

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