क्या राह में पलकें बिछाये तुम खड़ी हो?
निष्ठुरा है ये दुपहरी, धूप लगती पर भली सी,
तपिश रेगिस्तान के इस रेत में बस चुलबुली सी।
व्योम के अनुमान सारे अटकलों में रह गये हैं,
आज जिस परिधान में तुम सज रही हो सुंदरी सी॥
ज्यों बारिशों की चंद बूंदें, तप्त धरती पर पड़ी हों।
क्या राह में पलकें बिछाये तुम खड़ी हो?
लहर के उन्माद से जलधि अनिग्रह हो चला है,
पावसों की झड़ी से हर रोम चंचल हो चला है।
प्रकॄति की अनहोनियों भी जान कर अनजान बनतीं,
क्या नयन में काजल लगाते एक अश्रु बह चला है॥
ज्यों गहन मेघों बीच निकली, रश्मियों की कुछ लड़ी हों।
क्या राह में पलकें बिछाये तुम खड़ी हो?
भ्रमर भी बौराये हैं, कोपल, कली में भेद खोये,
आज उपवन भी खिले फूलों की सुन्दरता सजोये।
आम के बौरों की मदहोशी हवा मे घुल चुकी है,
क्या शर्म के आगोश मे छुप प्यार के कुछ बीज बोये?
ज्यों राह मे सत-रंगी, पुष्प मालायें पड़ीं हों।
क्या राह में पलकें बिछाये तुम खड़ी हो?
आज मै एकाकियों से निकल बाहर विचर सकता
मन की पीड़ा तज, अपरिमित प्रकॄति का उन्माद चखता
बोये थे जो बीज तुमने प्रेम के, वो लहलहाये
आज मे सौन्दर्य की भाषा हॄदय से समझ सकता
नयन अवलोकित करें छवि, सामने तुम हर घड़ी हो।
क्या राह में पलकें बिछाये तुम खड़ी हो?
सुलझी जीवन की पहेली, खोयी थी तुम वो कड़ी हो।
क्या राह में पलकें बिछाये तुम खड़ी हो?
~ अशोक सिंह
न्यू यॉर्क, 6/16/07
1 टिप्पणी:
भाई अशोक जी.....
गीत पढ़ा और सुन्दर लगा.... !!!
रिपुदमन
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