जब हुयी भावों की
धारा, चिर - प्रचुर
मौन की
भाषा
अधर से
बोलती है
मैं नहीं कहता हूँ ऐसा,
सारगर्भित मन नहीं है
अनकही संभावना से
या कहीं पुलकित नहीं है
देह की बातें भला कैसी
हैं जो मन ने न जानी
कौन ऐसा भाव है उस
अंक जो
परिचित नहीं है
जब दिशामय
हो
गहन गंभीरता
अधर की भाषा
नयन से बोलती है
गूढ़ हो जब तिमिर तो
एक मंद रश्मि आस देती
अन्यथा तो सघन घन की
कल्पना भी त्रास देती
यदि समन्वय हो सुखद
संसर्ग का
बंधन नहीं है
प्रज्ज्वलित आशाएँ कदाचित
विरह में मधुमास देतीं
दृष्टि
की सीमा
हुयी जब भी चुनौती
नयन की
भाषा
हृदय से
बोलती है
मौन रह कर भी हुये हैं
शाश्वत संगम यहाँ पर
जागती आँखों ने अक्सर
देखे हैं सपने जहाँ के
कँपकँपाती उँगलियों की
एक भाषा और भी है
स्पर्श से उत्कर्ष तक की
कोई परिभाषा
न है पर
अन्तःमन का मेल
जब सम्पूर्ण
हो
हृदय की भाषा
नयन से बोलती है
~ अशोक
सिंह
मार्च 16, 2015
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