क्षण भंगुर पंजर के वाहक,
भ्रम में अब तक जीते आये ।
अविरल जीवन के सब ग्राहक,
मन से मन को हरते आये ।
सहज पवन मे डग-मग,मद्धिम
सुखमय नौका चलती रहती ।
अल्प दुखों की चुभन कदाचित
आती रहती, जाती रहती॥
बीती कितनी रुतु बसंत की
बीते कितने सुखमय साल ।
सात सुखों के इस समुद्र में
इक दिन टुटा भ्रम का जाल ।
ज्ञ्यान शिखा मे प्राण पनपते,
ही सवाल उठते कुछ मौन ।
अह वयं की उहा-पोह मे,
पूछा आखिर हूं मै कौन ?
सहज रूप से श्रंग विराजित
कर्मठता की मैं उपमा ।
सांसारिक या अहं ब्रंह हो
सब देखा, समझा अपना ।
पर कल क्या था,सोच न पाया
कौन था मैं या फिर "क्यों" हूं ।
सहज प्रतिष्ठित कर बैठा था
बरबस मैं दिखता ज्यों हूं ।
सतत रहा है "मैं" संबोधन
बाल, युवा या वृद्ध-आश्रम ।
"कौन"जुड़ा जब पृश्न कोंचता
साथ युगल का होता दुर्गम |
असमंजस मे अंतर्मन की
तह मे जा कर ली डुबकी ।
नया एक व्यक्तित्व ढूंढता
जिसमे अविरलता बसती ।
परिभाषायें बदलेंगी, ज्यों ज्यों
जीवन पथ पर कदम चलेंगे ।
आज सबल, सक्षम शरीर तो
अर्थ - सिद्धि का रंग भरेंगे ।
प्रश्न यही है, यही रहेंगे
समय न बदले इनकी रीति |
आज सरल, जो सार्थक लगती
कल जाने कैसी हो प्रीति ।
कल की जर्जर काया मे
क्या गूंजेगा उत्तर का मौन ?
उम्र का सूरज ढलते ढलते
पहचानेगा आज का "कौन" ?
~ अशोक सिंह
न्यू यॉर्क
~ अशोक सिंह
न्यू यॉर्क
4 टिप्पणियां:
sunder atisunder kavita.Aapki soch aur vichaar shakti adbhut hai.
achi kaviota likhi hai apne
jeevan ke yathart ki abhivyakti par ati sahaj or sundar kaffi samay baad kuch esa padha jisko guguna saku
jabab nahin diya aapne
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