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शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011

कवि कल्पना की पराकाष्ठा

राह ये जाती कहाँ, हमको कहाँ भरमा रहे,
भले पूछा आप ने, तो सुनो हम फरमा रहे ।
बादलों तक हो लपकती, धरा की आकांक्षाएँ,
हम रहें प्रत्यक्ष, पर मन सूर्य और चंदा रहे ।

~ अशोक सिंह  
   न्यू यॉर्क 

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