
कुछ
रहा है अनकहा सा,
मन
में मेरे
कुछ
तुम्हारे चितवनों का रंग ढला है ।
झुकी
पलकों से निहारा
प्रेम
के संकल्प साधे
ज्वार
मन के मन में रखे
नयन
भी अभियक्ति आधे
आँख
खोली, जब निहारा
रुक
गया पल, समय की गति
राह
कितने खुल गए जो
मन तुम्हारे जा के झाँके
दिव्य दृष्टि अगर मिलती,
दूर से ही भाव पढ़ता,
मन मेरा भी तुम को लेकर मन-चला है।
प्रेम
की प्रतिमूर्ति है पर
कौन
सा रिश्ता बना लूँ
सौ
हँसी की लूँ बलाएँ
थाह
दिल की कैसे पा लूँ
यूं
समर्पण भाव की
संवेदना
पाई है अक्सर
पर किसी की और धुन में
गीत
अपना कैसे गाऊँ
कमल के आगोश में ज्यों
मधुप निश-भर,
हृदय तुम संग बावला सा हो चला है।
जब कभी भी प्रेम के
संसर्ग
में बाधा रही है
प्रबल उद्यम लालसा, पर
मूक अहि-राधा रही है
प्रेम
के प्रतिमान जब
संदर्भ
बन के रह गए हों
तब
फ़िज़ा ने ही कथा
उन्मुक्त
चाहों की कही है
सुभग इस उन्माद की, या
बेकसी की चटख से,
हवाओं का मर्म भी मादक, नशीला
है।
~ अशोक सिंह
न्यू
यॉर्क, जुलाई 31, 2015