कहो न, तुम फिर मिलोगे।
चाह अब तक भर न पायी
रात वह फिर से न आयी
आस के बेकल कठिन पल
मचल कर देते दुहाई
प्रीत की पगडंडियों पर,
प्राण बन, तुम फिर
चलोगे,
कहो न, तुम फिर
मिलोगे ।
ध्यान अब बरबस है आये
मन भ्रमित अक्सर हुआ है
मूर्त या अध - खुली पलकें
छवि यही मंजुल अब भाए
भावनाओं का बवंडर डोलता
चित्त भी निरं-तर टटोलता
विजन मानस भ्रांत भ्रम में
पूर्ण कल्पित जगत खोजता
क्या नहीं था, बीच अपने
मूल, भौतिक सुख औ’ सपने
क्या पता था एक दिन बस,
रेत की दीवार जैसे तुम ढहोगे,
कहो न, तुम फिर
मिलोगे।
मन सघन है, कोटि बिंदु-
भावनाओं के भरे हैं
गहन अंतर्जाल का वन
अनगिनत जाले बुने हैं
एक मद्धम रोशनी बन
द्वार तुमने खटखटाया
भंवर, मृगजल से परे रख
गले ख़ुद मुझको लगाया
वार कर सर्वस्व तुमने
बन के जीवन गीत तुमने
एक तन मन जान कर के,
कहा था, संग सदा
होगे,
कहो न, तुम फिर
मिलोगे
मिलन जब उत्कृष्ट था
तब दूर तो होना ही था
तीव्र मन की चाह मादक
भंवर में खोना ही था
क्यों नहीं यह मान लेते
मिलन का मत्त, मन समेटे
हुआ जीवन सार्थक मिल
तुम्हीं थे इसके रचयिते
भाग्य की बेबस लकीरें,
तर्क-संगत मन की पीरें
इस से स्वप्निल और क्या था?
आ कभी तुम ख़ुद कहोगे,
कहो न, तुम फिर
मिलोगे।
~ अशोक सिंह
न्यू
यॉर्क, जुलाई 31, 2015